Ashtavakra Gita Tritiyo Adhyayah an excellent philosophy on non-dualism provides mental peace to the listeners


Ashtavakra Geeta tells us the reality of the life and we are living in an imaginary world which we never feel. This is best philosophical thought free from politics.
तीसरा प्रकरण ।
मूलम् ।
अविनाशिनमात्मानमेकं विज्ञाय तत्त्वतः । तवात्मज्ञस्य धीरस्य कथमर्थार्जने रतिः ॥ १ ॥
पदच्छेदः ।
अविनाशिनम्, आत्मानम्, एकम्, विज्ञाय, तत्त्वतः, तव, आत्माज्ञस्य, धीरस्य, कथम् अर्थार्जने, रतिः ।।
आत्मज्ञस्य- आत्मज्ञानी धीरस्य धीर को कथम् क्यों शब्दार्थ । अर्थार्जने = { धन के संपादन करने में रति प्रीति है ।।

एकम् अद्वैत अविनाशिनम् अविनाशी आत्मानम् आत्मा को तत्वतः यथार्थ विज्ञान जान करके तब-तुझ
भावार्थ ।
जनकजी के अनुभव की परीक्षा करके अष्टावक्रजी फिर उसकी परीक्षा करते हैं-
अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे जनक ! नाश से रहित, निर्विकल्प, काल-परिच्छेद से रहित, देश-परिच्छेद से रहित, वस्तु-परिच्छेद से रहित, द्वैतभाव से रहित, चैतन्य-स्वरूप आत्मा को जान करके फिर तुझ धीर की व्यावहारिक घन
के संग्रह करने में कैसे प्रीति होती है ? अर्थात् आत्मज्ञानी होकर फिर भी तू धनादिकों में प्रीतिवाला दिखाई पड़ता है, इसमें क्या कारण हैं? ॥ १ ॥
मुनि के प्रश्न के उत्तर को, मूनि से सुनने की इच्छा करके, उससे आप ही प्रश्न पूछते हैं-
मूलम् ।
आत्माऽऽज्ञानाबहो प्रीतिविषय भ्रमगोचरे । शुक्तेरज्ञानतो लोभो यथा रजतविभ्रमे ॥ २ ॥
पदच्छेदः ।
आत्माऽऽज्ञानात्, अहो, प्रीतिः, विषयभ्रमगोचरे, शुक्रेः, अज्ञानतः, लोभः, यथा, रजतविभ्रमे ।।
अन्वयः ।
अहो आश्चर्य है कि आत्मऽऽज्ञानात् = } बात्मा के अज्ञान से विषयभ्रम विषय के अम गोचर। के होने पर प्रोतिः प्रीति होती है

यथा जैसे शुक्तेःसीपी के अज्ञानतः अज्ञान से रजतविभ्रमे रजत की भ्रांति में लोभः लोभ होता है ।।
भावार्थ ।
प्रश्न- हे भगवन् । आत्मज्ञान के प्राप्त होने पर धना- दिकों के संग्रह करने में क्या दोष है ?
उत्तर-हे शिष्य ! विषयों में अर्थात् स्त्री पुत्र धना- दिकों में जो प्रीति होती है, वह आत्मा के स्वरूप के अज्ञान
से ही होती है, आत्मा के ज्ञान से नहीं होती है। क्योंकि जब आत्मा का ज्ञान होता है, तब विषयों का बाघ होजाता है। इसमें लोक-प्रसिद्ध दृष्टांत को कहते हैं-जैसे शुक्ति के अज्ञान से, और उसमें रजतभ्रम के होने से, उस रजत में लोभ हो जाता है ।। २ ।।
मूलम् ।
विश्वं स्फुरति यत्रेदं तरंगा इव सागरे । सोऽहमस्मीति विज्ञाय कि दीन इव धावसि ॥ ३ ॥
पदच्छेदः ।
विश्वम्, स्फुरति, यत्र, इदम्, तरंगाः, इव, सागरे, सः, अहम्, अस्मि, इति, विज्ञाय, किम्, दीनः, इव, भावसि ।।

यत्र = -{ जिस आत्मा-रूपी समुद्र में इवम्यह विश्वम् संसार लरंगाः तरंगों के इव-समान स्फुरति स्फुरण होता है सः वही
अहम् मैं अस्मि इति इस प्रकार विज्ञाय जान करके किम् क्यों दोनःइव दीन की तरह घावसि तू दौड़ता है ।।
भावार्थ ।
जैसे समुद्र में तरंगादिक अपनी सत्ता से रहित प्रतीत होते हैं


Yogi

An anti-corruption crusader. Motive to build a strong society based on the principle of universal brotherhood. Human rights defender and RTI activist.

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